• धर्मनिरपेक्षता और संघवाद पर हमले का वर्ष रहा 2022

    आज समाप्त हो रहे वर्ष 2022 पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि यह एक ऐसा वर्ष रहा है जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2020 और 2021 में जिस गहरे गर्त में गिर गई थी

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    - प्रकाश कारत

    देशव्यापी संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक बिजली (संशोधन) विधेयक होगा, जिसे अगर अपनाया जाता है, तो किसानों सहित बिजली की खपत करने वाले आम लोगों और बिजली क्षेत्र के लाखों श्रमिकों और इंजीनियरों के लिए विनाशकारी साबित होगा। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले 2023 महत्वपूर्ण वर्ष होगा। यह एक ऐसा साल होना चाहिए जिसमें सभी वामपंथी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतें लोगों की लड़ाई लड़ने के लिए अपने संसाधनों को इकठ्ठा करें।

    आज समाप्त हो रहे वर्ष 2022 पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि यह एक ऐसा वर्ष रहा है जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2020 और 2021 में जिस गहरे गर्त में गिर गई थी, उससे बाहर निकलने के लिए संघर्ष करती रही। बढ़ती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, औद्योगिक गतिरोध और आय और संपत्ति में लगातार बढ़ती असमानताएं इसके स्पष्ट लक्षण थे।

    वर्ष के अंत तक, बेरोजगारों का आंकड़ा पांच करोड़ से ऊपर पहुंच गया और वर्ष के अधिकांश समय में खुदरा मुद्रास्फीति 7 प्रतिशत से ऊपर रही। अक्टूबर 2022 में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक पिछले वर्ष के इसी माह के मुकाबले 4 प्रतिशत कम था जो औद्योगिक विकास में ठहराव के साथ आया।                                                                        

    सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के निजीकरण के लिए मोदी सरकार का अभियान जीवन बीमा निगम के आईपीओ के रूप में जारी रहा, जिसने विशाल बीमा कंपनी में सरकार की हिस्सेदारी को कम कर दिया। केन्द्र सरकार देश में बिजली वितरण के निजीकरण के लिए संसद में एक विधेयक भी लाई, जो राज्य द्वारा संचालित वितरण कंपनियों को पंगु बना देगा। बड़े कॉर्पोरेट्स के लिए बैंक ऋ णों को बट्टे खाते में डालना जारी रहा तथा 10.01 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाले गये।

    केन्द्र सरकार की इन नीतियों के परिणामस्वरूप असमानताएं गहरी हुई हैं। 2021 में शीर्ष एक प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 40.6 प्रतिशत हिस्सा था, जबकि 2000 में यह 32 प्रतिशत था। धन के इस अश्लील संकेंद्रण का एक ग्राफिक उदाहरण यह है कि गौतम अडानी 2022 में दुनिया के तीसरे धनी व्यक्ति के रूप में उभरे। वह 133 बिलियन डॉलर की संपत्ति के साथ दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति और एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति हैं।

    यह एक ऐसा वर्ष भी था जिसने भारतीय राज्य और राज्य व्यवस्था को फिर से आकार देने के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों के अथक अभियान को देखा। प्रधानमंत्री ने स्वयं काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और अन्य विभिन्न धार्मिक समारोहों जैसे मंदिर परिसर के नवीनीकरण की अध्यक्षता की। सर्वक्षेत्रीय-हिंदू चेतना को मजबूत करने के प्रयासों के परिणामस्वरूप मुसलमानों का 'अन्यीकरण' जारी रहा। रामनवमी और नव-निर्मित हनुमान जयंती जुलूस जैसे धार्मिक त्योहारों के दौरान अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लगातार प्रयास किये गये। इन हमलों के खिलाफ मुसलमानों के किसी भी विरोध के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनके घरों को तोड़ दिया गया जैसा कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में देखा गया।

    भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ का उपयोग एक 'नये भारत' के विचार को प्रस्तुत करने के लिए किया गया था, जो एक हिंदू बहुसंख्यक राज्य के विचार के अलावा और कुछ नहीं है। 'सदियों के विदेशी आक्रमणों' से मुक्ति और 'औपनिवेशिक मानसिकता' से मुक्ति की बात हुई। इसका मतलब सदियों के मुस्लिम शासन से मुक्ति है और औपनिवेशिक मानसिकता ब्रिटिश शासन की अवधि से ही संबंधित नहीं है, बल्कि मुस्लिम शासन में वापस चली जाती है।

    राज्य की धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, तथा राज्यों के अधिकारों पर व्यापक हमले हुए। गैर-भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों को राज्य सरकारों के दायरे में आने वाले मामलों में दखल देने के लिए बेशर्मी से इस्तेमाल किया गया। राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपति के पद का उपयोग चुने हुए लोगों को कुलपति नियुक्त करने और राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए किया जाता रहा। केंद्र ने राज्यों को अपने ही हिस्से के संसाधनों से तथा कुल संसाधनों से कर्ज लेने से वंचित करने के लिए नये तरीके ईजाद किये।

    चुनाव आयोग और अन्य संस्थानों पर काबू पाने के बाद, साल के पिछले दो महीनों में उच्च न्यायपालिका पर खुद केन्द्रीय कानून मंत्री द्वारा कम हमले नहीं हुए। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में सर्वोच्च न्यायालय के रुख ने सत्तावादी शासकों को नाराज कर दिया, जो नागरिक स्वतंत्रता और सार्वजनिक असंतोष व्यक्त करने वाले या हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ बोलने वाले लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलना जारी रखे हुए हैं।

    इस साल सात राज्यों की विधानसभाओं- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हुए। भाजपा ने सात राज्यों में से पांच विधानसभाओं में जीत हासिल की, हालांकि वे पंजाब और हिमाचल प्रदेश में हार गये। दिल्ली नगर निगम चुनाव में भी उसे हार का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश और गुजरात चुनाव जो संकेत कर रहे हैं वह एक चेतावनी है। बढ़ती कीमतों, बेरोजगारी, कृषि संकट और गरीबी के प्रति लोकप्रिय असंतोष के बावजूद, गहरा अखिल हिंदू सांप्रदायिक धु्रवीकरण भाजपा को इन सभी समस्याओं को चुनावी रूप से दूर करने में मदद करता है।

    यह लोगों की आजीविका की रक्षा के संघर्षों को निजीकरण और मजदूर-किसान विरोधी केन्द्र की नीतियों एवं हिंदुत्व विचारधारा के खिलाफ एक लोकप्रिय और ठोस अभियान के साथ जोड़ने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

    इस वर्ष मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोगों के अन्य वर्गों के बढ़ते प्रतिरोध को देखा गया। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 28-29 मार्च को बुलाई गई दो दिवसीय आम हड़ताल में बड़ी संख्या में श्रमिकों और कर्मचारियों ने भाग लिया जो एक बड़ी सफलता थी। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) का संघर्ष जारी है जो स्वामीनाथन आयोग के सी2+50 प्रतिशत के फार्मूले पर आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग कर रहा है। महामारी के वर्षों के व्यवधान के बाद, छात्र और शिक्षक नयी शिक्षा नीति और शिक्षा पर अन्य हमलों के खिलाफ एक लंबे संघर्ष के लिए तैयार हैं।

    देशव्यापी संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक बिजली (संशोधन) विधेयक होगा, जिसे अगर अपनाया जाता है, तो किसानों सहित बिजली की खपत करने वाले आम लोगों और बिजली क्षेत्र के लाखों श्रमिकों और इंजीनियरों के लिए विनाशकारी साबित होगा। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले 2023 महत्वपूर्ण वर्ष होगा। यह एक ऐसा साल होना चाहिए जिसमें सभी वामपंथी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतें लोगों की लड़ाई लड़ने के लिए अपने संसाधनों को इकठ्ठा करें और एकजुट होकर हिंदुत्व-कॉरपोरेट शासन के राजनीतिक और वैचारिक हमले का मुकाबला करें।

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